Feb २५, २०२० १९:०९ Asia/Kolkata
  • क़ुरआनी क़िस्सेः समय बीतने के साथ ही साथ सारे रंग फीके पड़ जाते हैं और उनका अंत हो जाता हैं सिवाए ईश्वरीय रंग के जो स्थायी और अनमिट है। 

सूरए बक़रा एसा सूरा है जिसमें विभिन्न विषयों पर चर्चा की गई है।  बक़रा की जिस आयत की हम चर्चा करने जा रहे हैं उसमें ईश्वरीय रंग के बारे में चर्चा की गई है।

सूरे बक़रा की आयत संख्या 138 में ईश्वर कहता है कि बस ईश्वर का रंग है और अल्लाह से अच्छा किसका रंग होगा? हम केवल उसी की उपासना करते हैं।

ईश्वर ही सृष्टि का रचयिता है। उसने संपूर्ण सृष्टि की रचना की है।  ईश्वर ने सृष्टि के आरंभ में मनुष्य की आत्मा को पवित्र प्रवृत्ति द्वारा रंगा, परन्तु मनुष्य ने उस ईश्वरीय रंग पर अपनी इच्छाओं के रंग फेर दिये।  इस प्रकार मनुष्य ने ईश्वरीय रंग को अपने असितत्व के चित्र से ही मिटा दिया।  सांप्रदायिकता, निजी स्वार्थ, लालच, सांसारिक मायामोह, व्यक्तिगत तथा गुट व दलगत रुचि एवं रुझान ऐसे रंग हैं जो मनुष्यों के बीच जुदाई और फूट का कारण बनते हैं।  अतः यह कहा जाना चाहिए कि संसार से सभी जातीय व सांप्रदायिक रंगों को समाप्त होना चाहिए ताकि मनुष्य में ईश्वरीय रंग झलकने लगें।

समय बीतने के साथ ही साथ सारे रंग फीके पड़ जाते हैं और उनका अंत हो जाता हैं सिवाए ईश्वरीय रंग के जो स्थायी और अनमिट है।  सारे रंग जुदाई और फूट के कारण हैं सिवाए ईश्वरीय रंग के जो एकता और भाईचारे का कारण बनता है वो भी एक ईश्वर की उपासना की छाया में।  साधारणतः मनुष्य अन्य लोगों के रंग-ढंग, चाल-चलन और व्यवहार स्वीकार कर लेता है।  जब वह किसी समूह में जाता है तो उन्हीं लोगों का रंग अपना लेता है ताकि उसे वे लोग स्वीकार करने लगें जबकि धर्म दूसरों के रंग को स्वीकार करने की नहीं अपितु बेरंगों की सिफ़ारिश करता है।  वर्तमान समय में हम देख सकते हैं कि सब लोग पश्चिमी संस्कृति के रंग में रंगते जा रहे हैं।  इस रंग में रंगे हुए लोग ईश्वर से दूर और सांसारिक मायामोह में घिरे हुए दिखाई देते हैं।  इस प्रकार के लोगों के लिए यह स्पष्ट ही नहीं है कि उनका लक्ष्य है क्या?  मनुष्य को अपने भीतर किसी भी प्रकार की विशिष्टता प्राप्ति की चाह का कारण बनने वाले हर रंग से दूरी बनानी चाहिए चाहे वह किसी भी नाम और शीर्षक के अन्तर्गत हो। 

मनुष्य को सदैव ही सत्यवादी होना चाहिए न कि गुटवादी। सत्यवाद, सत्य को समझने के लिए मनुष्य की आंखों को खोल देता है परन्तु इसके विपरीत गुटवाद मनुष्य को अपनी कमियां देखने नहीं देता और दूसरों की परिपूर्णता को देखने योग्य वह नहीं रह पाता।  हृदय के ईमान के साथ व्यवहार में भी समर्पण आवश्यक है अर्थात केवल ईमान का दावा पर्याप्त नहीं है।  ईश्वरीय आदेशों के पालन के स्थान पर अपनी इच्छाओं का अनुसरण करके ईमान का दावा नहीं किया जा सकता।  सबसे अच्छा रंग, ईश्वरीय प्रवृत्ति का रंग होता है जिसे ईश्वर ने सभी मनुष्यों के अस्तित्व में निहित कर रखा है।  ईश्वरीय रंग अमिट, एकता उत्पन्न करने वाला तथा एक-दूसरे को निकट करने वाला होता है।

ईसाइयों में बपतिस्मे की परंपरा है।  बपतिस्मा वास्तव में एक प्रकार का धार्मिक स्नान है।  ईसाइयों में जब कोई बच्चा पैदा होता है तो उसका बपतिस्मा कराया जाता है।  ईसाइयों का मानना है कि बपतिस्मे से आरंभिक गुनाह पाक हो जाते हैं।  अतीत के सभी पापों की क्षमा के कारण ईसाइयों में बपतिस्मे को विशेष महत्व प्राप्त है जिसके कारण नए जीवन का आरंभ होता है।  ईसाइयों की यह परंपरा पैग़म्बरे इस्लाम (स) की बेसत के काल में भी प्रचलित थी।  बपतिस्मे के समय बच्चे को नहलाने वाले पानी में कभी-कभी ईसाई धर्मगुरू विशेष प्रकार के रंग मिला दिया करते थे।  बपतिस्मे से बच्चे के पुराने पाप धुल जाते हैं जो ईसाइयों के अनुसार हज़रत आदम के कारण पैदा होने वाले बच्चे से संबन्धित होते हैं।  ईसाइयों का मानना है कि जब कोई बच्चा पैदा होकर आंख खोलता है तो उस समय वह पापी होता है जिसके कारण वह प्रायश्यित का हक़दार है।  यही कारण है कि बपतिस्मा कराकर पैदा होने वाले बच्चे को पवित्र कराया जाता है।  इस प्रकार से वह पवित्र हो जाता है और पापों से लगातार संघर्ष करने की भावना उसके भीतर जागृत हो जाती है।

सूरे बक़रा की आयत संख्या 138 में ईश्वर पैग़म्बरे इस्लाम को यह आदेश देता है कि यहूद और नसारा से कह दो कि बस ईश्वर का रंग है और अल्लाह से अच्छा किसका रंग होगा? हम केवल उसी की उपासना करते हैं।  ईश्वर का रंग, निष्ठा के साथ उपासना का रंग है।  यह वह रंग है जिसमें डूबकर ही मनुष्य, अनेकेश्वरवाद से मुक्ति पा सकता है।  वास्तव में ईश्वर के रंग से बेहतर कोई भी रंग हो ही नहीं सकता।  इसका एक कारण यह है कि संसार में कोई भी रंग, ईश्वरीय रंग से अधिक सुन्दर हो ही नहीं सकता।

ईश्वर ने सृष्टि की रचना में सबको सुन्दर रंगों से सुसज्जित किया है।  आकाश, धरती, जल-थल, जंगल-मरूस्थल, पशु-पक्षी, पेड़-पौधों, मछलियों और अन्य प्राणियों में ईश्वर ने अलग-अलग रंग भरकर उनके माध्यम से अपनी महानता को दर्शाया है।  इस संबन्ध में ईश्वर सूरे फ़ातिर की 27वीं और 28वीं आयतों में कहता हैः अब क्या तुमने इस पर भी ध्यान नहीं दिया कि निश्चित रूप से ईश्वर ही ने आसमान से पानी बरसाया फिर हमने उसके ज़रिए तरह-तरह के रंगों वाले फल पैदा किए और पहाड़ों के रंग अलग-अलग हैं कुछ तो सफेद और कुछ लाल और कुछ बिल्कुल काले हैं।  और इसी तरह आदमियों और जानवरों के की भी रंग तरह-तरह के हैं उसके बन्दों में ख़ुदा का ख़ौफ करने वाले तो बस उलेमा हैं बेशक खुदा ग़ालिब और बख्शने वाला है।

सृष्टि में पाए जाने वाले विभिन्न रंगों की कहानी मनुष्य के बारे में कुछ अलग है।  ईश्वर ने आरंभ में मनुष्य के ढांचे में आत्मा फूंकी।  फिर उसने अपने इस काम पर गर्व भी किया।  उसने मनुष्य की सृष्टि को गौरव की बात बताया है।  इस बात को ईश्वर ने सूरे मोमेनून में इस प्रकार से कहा है कि तारीफ़ है उस सृष्टिकर्ता की जो बेहतरीन सृष्टिकर्ता है।  इसी संदर्भ में वह लोगों से ईश्वरीय दूतों की शिक्षाओं का अनुसरण करने का आदेश देते हुए कहता है कि उचित यह होगा कि विदित रंगों के स्थान पर ईश्वर के वास्तविक रंगों को अपनाओं जो हर प्रकार की बुराई और गंदगी से तुम्हारी आत्मा को सुरक्षित कर सके।

मनुष्य को अपने जीवन में रंग का चुनाव करना चाहिए।  विशेष बात यह है कि वह रंग मनुष्य की प्रवृत्ति से निकट या उसके अनुरूप होना चाहिए।  हालांकि यह ईश्वरीय रंग उसी समय चढ़ता है जब स्वार्थ, जातिवाद, निजी हितों और इसी प्रकार की बुराइयों से मनुष्य स्वयं को सुरक्षित रखे।  एसा करने के बाद ही वह अपनी आंतरिक इच्छाओं पर नियंत्रण स्थापित कर सकता है।  वैसे सारे ही रंग समय गुज़रने के साथ ही साथ फीके पड़ने लगते हैं जबकि ईश्वर का रंग सदा रहने वाला है जो कभी भी फीका नहीं पड़ता।  ईश्वर के रंग को अपनाने का अर्थ यह है कि जीवन में केवल वही काम किया जाए जो ईश्वर को पसंद हो और उसे ईश्वर के सामिप्य के उद्देश्य से किया जाए।

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