Pars Today
इब्ने तैमिया ने अतिवादी आस्था की बुनियाद रखी जिसके प्रभाव व परिणाम 19वीं शताब्दी में मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब के आन्दोलन के रुप में सामने आये।
हज़रत अली अलैहिस्सलाम और पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों के स्थान के बारे में बहुत अधिक सही और ऐसी रवायतें मौजूद हैं जिनकी शीया-सुन्नी बड़े-2 विद्वानों ने पुष्टि की है।
अहमद इब्ने हंबल अहले सुन्नत के एक वरिष्ठ धर्मगुरु हैं, जो इस्लामी शिक्षाओं को समझने के लिए हदीस पर बहुत बल देते हैं।
सुन्नी समुदाय का मानना है कि पैग़म्बरे इस्लाम के स्वर्गवास के बाद ईश्वरीय संदेश वहि उतरने का सिलसिला बंद हो गया और पैग़म्बरे इस्लाम ने जो कुछ पेश कर दिया वही पर्याप्त है और अब यदि किसी नई स्थिति और नए विषय का सामना होता है तो अपनी बुद्धि का प्रयोग करके उसके बारे में इस्लाम का आदेश तय करना होगा।
वहाबी सलफीवाद का तकफीरी और धार्मिक विश्वासन से विचारधारा जबकि मिस्री सलफीवाद का राजनीतिक पहलु है और वह इस्लामी जगत की राजनीतिक और सामाजिक परिस्थिति की प्रतिक्रिया में अस्तित्व में आया है।
हमने भारतीय उपमहाद्वीप से मिस्र की ओर सलफ़ीवाद के विस्तार पर चर्चा की।
हमने भारत को इस्लामी जगत के वैचारिक व आबादी के ध्रुवों में से एक ध्रुव के रूप में पहचनवाया और शाह वलीयुल्याह देहलवी तथा उनके बेटे शाह अब्दुल अज़ीज़ के विचारों और देवबंदी मत के वजूद में आने में उसके प्रभाव का उल्लेख किया था।
तकफ़ीरी सलफ़ीवाद, जेहादी सलफ़ीवाद, प्राचारिक सलफ़ीवाद, राजनैतिक सलफ़ीवाद और सुधारवादी सलफ़ीवाद, यह सलफ़ीवाद की पांच मुख्य शाखाएं हैं।
इस्लामी देशों की कुछ तानाशाही सरकारें ईरान की इस्लामी क्रांति के प्रभावों के फैलने से चिंतित थीं इसीलिए उन्होंने इसके प्रभाव को रोकने व सीमित करने का यथासंभव प्रयास किया।
यद्यपि पिछली शताब्दियों के दौरान सलफ़ीवाद के आधार और सिद्धांत बाक़ी रहे हैं किन्तु समय और स्थान की विशेषताओं और परिस्थितियों के अनुसार उसमें ऐसे परिवर्तन अस्तित्व में आते हैं जिससे समकालीन सलफ़ीवाद को पूर्ण रूप से वही पारंपरिक सलफ़ीवाद या क्लासिकल सलफ़ीवाद कहा जा सके।